सिंहासन बत्तीसी की आठवीं कहानी – पुष्पवती पुतली की कथा
आठवीं सुबह होने पर महाराज भोज विक्रमादित्य के सिंहासन की पर बैठने का भाव लेकर आगे बढ़ने लगे ।
राजा भोज महाराज विक्रमादित्य से जुड़ी सुनते सुनते थक गए थे
फिर भी उस सिंहासन से जुडी उनकी लालसा बढ़ती ही जा रही थी
और उस सिंहासन पर बैठने के लिए उनको विक्रमादित्य के किस्से सुनने ही पड़ते थे
हर बार की तरह हभी इस बार विक्रमादित्य के सिंहासन से बाहर आयी
आठवीं पुतली ने उन्हें सिंहासन ग्रहण करने से रोकते हुए
महाराज विक्रमादित्य के महान आचरण से जुड़ा एक और किस्सा सुनना शुरू कर दिया
राजा को सजावट की चीजें खरीदने की आदत थी ।
एक दिन एक बढ़ई उनके शाही दरबार में आया। उसके पास साज-और सज्जा के कई सामान थे।
राजा के सैनिक उस बढ़ई के बारे में बताया तो राजा मिलने का आदेश दिया ।
राजा विक्रमादित्य ने उसे देखकर पूछा, “क्या आपके पास ऐसा कुछ है जो इस महल को सुशोभित कर सकता है या हमारे लिए उपयोगी हो सकता है।”
बढ़ई ने कहा, “महाराज! माल बहुत है, लेकिन मुझे यह लकड़ी का घोड़ा आपके योग्य लगता है।
जब राजा ने उसे दूर से देखा, तो वह असली घोड़े जैसा लग रहा था, न कि लकड़ी का घोड़ा।
कुछ देर सोचने के बाद, विक्रमादित्य ने बढ़ई से पूछा, “कृपया मुझे इसके गुण बताएं।”
उसके सवाल के जवाब में बढ़ई ने कहा, “हे राजन! आप इसे पहले ही देख चुके हैं।
इसे इस तरह से बनाया गया है कि यह एक असली घोड़े की तरह दिखता है।
साथ ही, अगर कोई उस पर सवारी करता है, तो वह इतनी तेज दौड़ता है
कि वह व्यक्ति हवा से बात करना शुरू कर देता है।
इसके खाने पीने और देखभाल करने की आवश्यकता नहीं है। यह बिना किसी कीमत के आपकी सेवा कर सकता है।”
राजा यह सब सुनकर प्रसन्न हुआ।
उसने बढ़ई से उस लकड़ी के घोड़े की कीमत पूछी। बढ़ई ने कहा, “देखिये राजन” आपसे तो चाह कर भी कोई कुछ नहीं छुपा सकता है ।
मेरी पूरी जिंदगी की मेहनत केवल यह लकड़ी का घोड़ा है। मैं इसे बेचने की कीमत कैसेआपको बता पाऊंगा?
आप पहले से ही जानते हैं कि मैंने इसे बनाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया है।
इसे बेचने की राशि का निर्णय आप स्वयं ही करिये और मुझे इसकी कीमत दे दीजिये ।
विक्रमादित्य ने तुरंत मंत्री से बढ़ई को एक लाख सोने के सिक्के देने को कहा। इतनी ऊंची कीमत सुनकर बढ़ई प्रसन्न हुआ।
इधर बढ़ई एक लाख सोने के सिक्के लेकर अपने घर गया।
दूसरी ओर, राजा ने नौकर को लकड़ी के घोड़े को अस्तबल में सुरक्षित रखने का आदेश दिया।
कई दिनों के बाद, विक्रमादित्य ने सोचा कि क्यों न लकड़ी के घोड़े की सवारी की जाए।
आपको यह भी पता चल जाएगा कि घोड़ा कैसे दौड़ता है।
राजा ने अपने मंत्रियों से जंगल में घूमने के लिए लकड़ी का घोड़ा तैयार करने को कहा।
अच्छे से घोड़े को तैयार करो और राजा उस घोड़े पर बैठ घूमने चले गए ।
सभी असली घोड़े पर और राजा लकड़ी के घोड़े पर बैठ गए।
जैसे ही राजा ने घोड़े को दौड़ाने के लिए पैर मारा, घोड़ा तेजी से दौड़ने लगा।
घोड़ा तेज गति से राजा को बहुत दूर ले आया।
जब राजा ने चारों ओर देखा, तो उसके मंत्री और दरबार के लोग कहीं नहीं दिख रहे थे।
राजा एक अनजान और सुनसान जगह पर पहुंच गया था।
कुछ देर बाद राजा ने एक बार फिर उसका पैर मारा।
फिर से राजा का इशारा पाकर घोड़ा हवा की गति से आकाश में ऊपर की ओर भागने लगा।
अब राजा चिंतित होने लगे । उसने तुरंत घोड़े को जमीन पर उतरने का इशारा किया।
आज्ञा का पालन करते हुए घोड़ा नीचे आने लगा, लेकिन घोड़े की गति इतनी तेज थी कि वह एक पेड़ से जा टकराया।
पेड़ से टकराते ही घोड़ा कुचल गया और राजा जंगल में गिर पड़े ।
जैसे ही वह नीचे गिरा, उसने अपने पास एक बंदर देखा, वह राजा की ओर कुछ इशारा कर रही थी। विक्रमादित्य को उसकी बात समझ में नहीं आई।
राजा जैसे ही जमीन से उठा, उसने पास में एक झोंपड़ी देखी।
वहाँ जाकर राजा ने हाथ-पैर धोए और पेड़ के कुछ फल खाकर खा लिया।
अब राजा एक पेड़ पर चढ़ गया और आराम करने लगा। शाम को उस झोपड़ी में एक साधु आया।
उसने भी हाथ-पैर धोकर पानी पिया और बंदर पर पानी की कुछ बूंदें छिड़क दीं।
उसके शरीर पर पानी गिरते ही बंदर एक सुंदर राजकुमारी के रूप में आ गयी ।
राजकुमारी ने आनन-फानन में संन्यासी के लिए खाना बनाया और संन्यासी के पैर दबाने लगी।
सुबह संन्यासी फिर झोंपड़ी से बाहर चला गया, लेकिन जाने से पहले उसने राजकुमारी पर पानी छिड़क कर उसे फिर से बंदर बना दिया ।
सुबह होने पर विक्रमादित्य की आँखे खुली और वह नीचे आ गए।
तभी बंदर ने उन्हें देखा और कुछ इशारा करने लगा। राजा उसे समझ नहीं पाए और अंदर जाकर अपना मुँह धो लिया।
बंदर आया और उसी जगह खड़ा हो गया। उसी समय बंदर पर कुछ पानी के छींटे पड़े।
जल्द ही बंदर फिर से राजकुमारी बन गया। राजा ने जैसे ही बंदर को राजकुमारी बनते देखा तो वह हैरान रहगए ।
विक्रमादित्य ने राजकुमारी से इस बारे में पूछा।
राजकुमारी ने कहा, “मैं कामदेव-पुष्पावती की पुत्री हूँ। बरसों पहले मैंने गलती से एक संन्यासी को तीर मार दिया था।
फिर उन्होंने मुझे क्रोध में श्राप दिया कि मुझे जीवन भर वानर बनकर संन्यासी की सेवा करनी होगी।
मैंने संन्यासी को बहुत समझाया कि गलती से तीर लग गया था, लेकिन क्रोध में उसने मेरी एक न सुनी।
कुछ समय बाद सन्यासी ने कहा कि राजा विक्रमादित्य आकर मुझे इस श्राप से मुक्त कर देंगे और मुझे अपने साथ पत्नी के रूप में रखेंगे,
लेकिन यह तभी संभव होगा जब मैंराजा विक्रमादित्य से किसी भेंट में मिलूं।
राजा विक्रमादित्य सब कुछ समझ गए।
उसने उस राजकुमारी की दुर्दशा देखकर शाम को संन्यासी से उपहार मांगने को कहा और उसे अपने साथ ले जाने का वचन दिया।
इसके बाद राजा ने उस राजकुमारी पर पानी डालकर उसे फिर से बंदर बना दिया।
शाम को फिर से संन्यासी घर आया और बंदर पर पानी छिड़क कर उसे राजकुमारी बना दिया।
राजकुमारी बनते ही महिला ने कहा कि उसे उपहार के रूप में कुछ चाहिए। उसने तुरंत उसे एक कमल का फूल दिया।
संन्यासी ने राजकुमारी से कहा कि यह फूल कभी नहीं मुरझाएगा और प्रतिदिन एक विशेष रत्न देगा।
तब संन्यासी ने कहा, “हे सुंदरी! मुझे पता है कि विक्रमादित्य यहाँ आए हैं।
आप उन्हें बुलाते हैं और खुशी-खुशी उनके महलों में जाते हैं।” यह सुनकर राजा स्वयं वहां आ गए
और राजकुमारी को अपने साथ ले जाने के लिए अपने पुत्रों को वहां बुलाया।
अपने राज्य में पहुँचते ही राजा को देखकर एक बालक रोने लगा।
जब विक्रमादित्य ने उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने राजा से वह कमल मांगा।
राजा ने प्रसन्न्तापूर्वक उस फूल को उस नन्हे बालक को दे दिया ।
कुछ दिनों बाद एक व्यक्ति को रत्न चोरी करने वाले चोर के रूप में दरबार में पेश किया गया।
महाराज विक्रमादित्य ने उस चोर से रत्नों के बारे में पूछा तो उसने बोला महाराज मेरा पुत्र कहीं से एक फूल ले आया था ।
वह हर दिन एक कीमती रत्न देता है। मैं उनके साथ बाजार में बेचने के लिए निकला था, लेकिन आपके सैनिकों ने मुझे पकड़ लिया।
इस व्यक्ति की बातें सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ।
सिपाहियों पर क्रोधित होकर राजा ने कहा, “बिना चोर समझे किसी को पकड़ना बिलकुल गलत है।
भविष्य में इस तरह की हरकत नहीं होनी चाहिए।” इसके बाद राजा ने उस व्यक्ति को रिहा करने का आदेश दिया।
अपनी परेशानी देखकर राजा ने पूछा, “मुझे बताओ कि तुम इस मणि को कितने में बेचना चाहते हो।
” राजा ने चोर को भला व्यक्ति समझ कर उसके मणि के बदले सोने की मोहरे दी ।
इसका पाठ करने के बाद, आठवीं शिष्य पुष्पावती ने कहा, “राजा इतना महान और परोपकारी होना चाहिए।
क्या आपके पास ये सभी गुण हैं, मुझे बताओ? यदि ये गुण हैं, तो केवल इस सिंहासन पर बैठें या नहीं।
” यह कहकर पुतला राजा के सिंहासन से आकाश में उड़ गया।
Moral of the story कहानी से मिली सीख:
इस कहानी से हमे ये शिक्षा मिली है की हमे कभी भी बिना जाँच पड़ताल के किसी को दण्ड नहीं देना चाहिए